एक छोटे देहात में मेरा जन्म हुआ | मैं किसान परिवार से हूँ | मेरे पिताजी ने कृषी विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त की थी, अपनी विद्यार्थीदशा में गांधीजी के आंदोलन में वे शामील भी हुए थे | उनपर गांधी तथा नेहरूजी के विचारों का प्रभाव था | विशेष तौर से गांधीजी का इसलिये अपनी उंची पढाई के बावजूद गांव में रहकर ही अपनी पढ़ाई को गांव के विकास के लिये उपयोग में लाने का फैसला लिया | पुरा गांव उन्हें प्यार और सम्मान से देखता था | यह सब लिखने का कारण यह है कि मेरे पिताजी के उदार विचारो का प्रभाव मुझपर पढ़ा | मेरे पिताजी ने घर की लड़कियो को जिला परिषद की स्कूल में दाखिला करवाया | हमारे समाज में लड़कियो की पढ़ाई न के बराबर थी | यहा तक तो ठीक था लेकिन समस्या तब पैदा हुई जब घर में बार बार टोका जाने लगा कि आप लड़की हो, आपको यह नही करना है, वह नही करना है | फिर मेरे सवाल जवाब घर में शुरू हुए | मैंनें
पुछा क्यूँ? जवाब था तुम लड़की हो इसलिये | यही से मेरा विद्रोह शुरू हुआ | निर्णय की स्वतंत्रता न होना कोई भी स्वतंत्रता न होना, यह स्थिति मानने को मन और बुद्धी दोनों ही तैयार नहीं थे | समाज और धर्म के नाम पर जो कहा जा रहा है उसका बस यही जवाब था कि ये चलता आ रहा है | फिर जब आगे पढ़ना भी रोक दिया गया | वह इसलिए कि आगे की पढ़ाई के लिए शहर जाना है, जो लड़कियों के लिए सही नहीं, फिर अब शादी कर दो तब तो और भी डर लगा कि बची-खुची स्वतन्त्रता भी गई और मजबूरी और बेबसी इतनी कि बस छटपटाहट भी मुश्किल | पिताजी की उदारता के बावजूद भी इन समस्याओं का सामना करना पड़ा क्योंकि समाज और परिवार की धारणाएँ बहुत मजबूत थी | तब मैंने यह तय किया कि मुझे यह सब नही सहना है | मैं ज़रूर लडूंगी, फिर इस लड़ाई कि खातिर मुझे घर छोड़ना पड़ा, जो कि जाहीर है आसान नहीं था | तब मैंने एक युवा संगठन के साथ खुद को जोड़ा जो सम्पूर्ण क्रान्ति के विचार को लेकर काम कर रहा था | छात्र युवा संघर्ष वाहिनी उस युवा संगठन का नाम था | ये सब आसान तो नहीं था लेकिन जब आन्दोलन से जुडी तो एक स्वतन्त्रता का एहसास हुआ | लेकिन मेरी समस्याएँ महिला होने से जुडी हुई थी, इसलिए वह एक केंद्रबिंदु जरुर था | लेकिन एक व्यापक विचारधारा तथा संगठन से जुड़ने की वजह से यह समझ भी बनी की ISOLATION में कुछ नही होता | फिर संगठन के FULL-TIMER के रूप में काम करते वक़्त आदिवासी क्षेत्रो में घूमकर वहा के सवालों को समझने की कोशिश की तथा वहां आंदोलनों में भी शामिल हुई | आसाम आन्दोलन के सन्दर्भ में संगठन द्वारा चलायी गई राष्ट्रीय संवाद प्रक्रिया में शामिल रही | दलित, महिला, विद्यार्थी, आदि क्षेत्रो में भी काम किया तथा संघर्ष वाहिनी के राष्ट्रीय संयोजक का पद भी संभाला |
१९८२ में जलगाँव शहर में मुस्लिम पंचायत ने एक फतवा जारी किया कि मुस्लिम महिलाओं पर सिनेमा देखने पर पाबंदी लगा दी गई है और कोई भी मुस्लिम महिला सिनेमा देखने के लिए सिनेमा घर जाती है तो उस पर जुर्माना लगाया जायेगा | उसके बाद भी वह सिनेमा देखती हुई पकड़ी गई तो उसे सामाजिक रूप से जलील किया जाएगा और इस पर कारवाई भी शुरू कर दी गई | मुस्लिम महिलाओं में इस बात को लेकर बहूत गुस्सा था | हम छात्र युवा संघर्ष वाहिनी के कार्यकर्ताओ ने इसको समझने की कोशिश करते हुए मुस्लिम महिलओं से मुहल्लों मुहल्लों में जा कर बात की | फिर खुले रूप से सवाल उठाने शुरू किये | उसके बाद हम पर दबाव आना शुरू हुआ लेकिन मुस्लिम महिलओ ने भी संगठित रुप में जवाब देना शुरू किया | इसी दौरान रेहाना नाम की महिला पर हमला कर दिया जिस में वह और उसका पति जख्मी हो गए | तब मुस्लिम महिला समिति ने आन्दोलन का निर्णय लिया और यह तय किया कि ८ मार्च विशव महिला दिवस के अवसर पर हम इसके खिलाफ सत्याग्रह करेंगे | इस आन्दोलन में हमारी भूमिका यह थी की फिल्मे देखना इतना ही हमारे आंदोलन का मकसद नहीं है बल्कि हम तानाशाही तथा हिंसा का विरोध करना चाहते हैं | महिलाए खुद अपने निर्णय ले सकती है | उस समिती में जिसमे महिलाएं है ही नहीं उसका निर्णय हम पर क्यों थोपा जा रहा है? हम किसी को अपना दुश्मन नहीं मानते लेकिन अपने अधिकार के लिए लड़ना चाहते है और हमारी मांग यह है कि स्वयंघोषित पंच कमिटी रद की जाये | गांधीवादी तरीके से हम ये आन्दोलन चलाना चाहते थे इसलिए मुस्लिम महिलाएं शांतिपूर्ण तरीके से अपना मार्च सिनेमा हॉल तक ले जाएंगी और घोषित करेंगी की सिनेमा बंदी हमने तोड़ दी है | इस भूमिका के तहत ८ मार्च १९८२ को एक जुलुस द्वारा मुस्लिम महिलाऐं सिनेमा हॉल की तरफ निकली | रस्ते में पथराव, दबाव का सामना करना पड़ा लेकिन अंततः हमने घोषित कर दिया की हमने सिनेमा बंदी तोड़ दी है | इस आन्दोलन की खबरें देश भर के अखबारों मे आई | टाइमस ऑफ़ इंडिया में एडिटोरिअल लिखा | अब हमारी दूसरी मांग थी कि पंच कमिटी रद की जाए | इसके बाद मुझे धमकिया दी जाने लगी क्यूंकि आन्दोलन का नेतृत्व मैंने किया था | मुझे पुलिस सुरक्षा दी गई, फिर महाराष्ट्र की विधान सभा में यह सवाल उठाया गया और महाराष्ट्र सरकार को पंच समिति पर बंदी लगानी पड़ी | इस तरह से यह आन्दोलन एक सफल मुकाम तक पहुंचा |
महिला आन्दोलन – जो १९७५ विश्व महिला वर्ष के बाद स्वतंत्र रुप में खड़ा हुआ था – उसमें कई संगठनों से सम्पर्क हुआ | उनके साथ जुड़ाव भी हुआ, जैसे मुंबई में नारी केंद्र या स्त्री मुक्ति सम्पर्क समिती, स्वाधार स्त्रीविमोचन ट्रस्ट आदि | और इसके अलावा जो भी इकठ्ठा मंच बने उसमे मैं शामिल रही | इस महिला आंदोलन का पहला दौर काफी उत्साह से भरा हुआ था | पितृसत्ता का रूप और गहराई समझना, अपने अनुभवों को उस से जोड़ना और इकठ्ठे लड़ाई लड़ना, एक दुसरे के साथ खड़े होने की भावना | इसका एक दौर जरूर था, लेकिन महिला आन्दोलन का अजेंडा, समझ, भारतीय सन्दर्भ, विशेषतौर पर महिला दासता, जाती व्यवस्था तथा अल्पसंख्यक समुदाय की महिलाओं के सवाल पर समझ की कमी रही | इसलिए इन तबकों की महिलाओं की भागीदारी नहीं बढ़ नहीं पाई | दूसरी तरफ १९८० के दशक में शाहबानो के रूप में मुस्लिम मूलतत्ववाद और रूपकुंवर सती का मसला, फिर लालकृष्ण अदवानि की रथयात्रा, बाबरी मस्जिद का हिन्दू मूलतत्व वादियों द्वारा विध्वंसन – इस सारे झंझावत में जिस तरह सभी आन्दोलन हिल गये, उसी तरह महिला आन्दोलन भी हिल गये | दूसरा आव्हान सामाजिक तथा राजनितिक आंदोलनों के एन.जी.ओ. करण का है जिसका समता, सामाजिक न्याय के लिए चलने वाले आंदोलानो पर गहरा असर पड़ा है | फिर भी अगर कहीं से उम्मीद की जा सकती तो वे महिला आन्दोलन है, बशर्ते पिछड़े वर्गों की भागीदारी, मूलतत्ववाद से लड़ने की ताकत, प्रतिबध्धता, इमानदारी, सेल्फ करेक्शन तकनीक आन्दोलन का चरित्र बने |